नेहरू-गांधी परिवार ने ‘नेतृत्व को जन्मसिद्ध अधिकार’ बना दिया, थरूर का वंशवादी राजनीति पर हमला, कांग्रेस खामोश

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नई दिल्ली. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सांसद शशि थरूर ने एक बार फिर अपनी ही पार्टी के भीतर हलचल मचा दी है। इस बार वजह है उनका एक लेख, जिसमें उन्होंने भारत में वंशवादी राजनीति (Dynasty Politics) पर करारा प्रहार करते हुए कहा है कि नेहरू-गांधी परिवार ने यह धारणा मजबूत की कि राजनीतिक नेतृत्व “जन्मसिद्ध अधिकार” हो सकता है। थरूर का कहना है कि यह प्रवृत्ति भारतीय लोकतंत्र के लिए “गंभीर खतरा” है और अब समय आ गया है कि “वंशवाद की जगह योग्यता आधारित नेतृत्व” (meritocracy) को महत्व दिया जाए।थरूर का यह लेख अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म ‘प्रोजेक्ट सिंडिकेट’ में 31 अक्टूबर को प्रकाशित हुआ, जिसने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। उन्होंने लिखा,

“दशकों तक एक परिवार भारतीय राजनीति पर हावी रहा। नेहरू-गांधी वंश का प्रभाव — जिसमें स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी, तथा वर्तमान विपक्षी नेता राहुल गांधी और सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा शामिल हैं — देश की आज़ादी और राजनीति के इतिहास से गहराई से जुड़ा है। लेकिन इसी के साथ इस परिवार ने यह विचार भी पुख्ता किया कि राजनीतिक नेतृत्व एक ‘विरासत’ के रूप में मिल सकता है।”

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तिरुवनंतपुरम से सांसद शशि थरूर ने कहा है कि वंशवादी राजनीति भारतीय लोकतंत्र के लिए एक “गंभीर खतरा” बन चुकी है, और अब समय आ गया है कि देश “वंशवाद की जगह योग्यता (Meritocracy)” को अपनाए। अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन प्रोजेक्ट सिंडिकेट में प्रकाशित अपने लेख में थरूर ने लिखा कि जब राजनीतिक शक्ति योग्यता या जनसंपर्क के बजाय वंश के आधार पर तय होती है, तो शासन की गुणवत्ता गिर जाती है।

थरूर ने अपने लेख ‘Indian Politics Are a Family Business’ में कहा कि दशकों से एक ही परिवार भारतीय राजनीति पर हावी रहा है — नेहरू-गांधी वंश, जिसमें जवाहरलाल नेहरूइंदिरा गांधीराजीव गांधीराहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा शामिल हैं। उन्होंने लिखा,

“इस परिवार का प्रभाव स्वतंत्र भारत के इतिहास से गहराई से जुड़ा है, लेकिन इसी के साथ इसने यह विचार भी मजबूत किया कि राजनीतिक नेतृत्व जन्मसिद्ध अधिकार हो सकता है। यह सोच अब लगभग हर पार्टी, हर क्षेत्र और हर स्तर तक पहुँच चुकी है।”

थरूर ने उदाहरण देते हुए कहा कि ओडिशा में बीजू पटनायक के निधन के बाद उनके पुत्र नवीन पटनायक ने उनका संसदीय क्षेत्र संभाला, महाराष्ट्र में बाल ठाकरे से उद्धव ठाकरे, और फिर आदित्य ठाकरे तक नेतृत्व का हस्तांतरण हुआ।
इसी तरह समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादवलोक जनशक्ति पार्टी में रामविलास पासवान से चिराग पासवान, और जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवारों तक, वंशवाद की परंपरा गहराई से जमी हुई है।

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उन्होंने लिखा कि पंजाब में बादल परिवारतेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव के बेटे और बेटी के बीच उत्तराधिकार की जंग, और तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार द्वारा संचालित डीएमके, यह सभी उदाहरण बताते हैं कि परिवारवाद अब भारतीय राजनीति की संरचना में बुना जा चुका है

थरूर ने स्पष्ट किया कि यह प्रवृत्ति केवल भारत तक सीमित नहीं है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में भुट्टो और शरीफ परिवारबांग्लादेश में शेख और जिया परिवार, और श्रीलंका में बंडारनायके और राजपक्षे परिवार इस वंशवादी परंपरा के उदाहरण हैं।

“लेकिन भारत जैसे सशक्त लोकतंत्र में यह प्रवृत्ति सबसे अधिक विरोधाभासी लगती है,” उन्होंने कहा।

थरूर ने तर्क दिया कि वंशवाद का एक कारण ‘परिवार को एक राजनीतिक ब्रांड’ के रूप में देखना है।

“ऐसे उम्मीदवारों को जनता तक पहुंचने या भरोसा जीतने में उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती — उनका नाम ही पर्याप्त पहचान बन जाता है,” उन्होंने लिखा।

लेकिन उन्होंने यह भी जोड़ा कि शिक्षा दर 81% और मोबाइल-इंटरनेट पहुंच 95% से अधिक होने के बावजूद, सिर्फ मतदाता नहीं बल्कि दलों की आंतरिक संरचना भी इस समस्या के लिए जिम्मेदार है।

“भारतीय राजनीतिक दल अधिकतर व्यक्तिनिष्ठ (personality-driven) हैं, जहाँ नेतृत्व चयन की प्रक्रिया अपारदर्शी होती है। निर्णय कुछ लोगों या अकेले नेता के हाथों में होता है, जो परिवर्तन से डरते हैं। इस कारण ‘नेपोटिज़्म’ (पारिवारिक पक्षपात) अक्सर ‘मेरिटोक्रेसी’ पर भारी पड़ता है।”

थरूर ने कहा कि जब सत्ता विरासत में मिलती है, तो नेता आम जनता की समस्याओं से कट जाते हैं।

“वंशवादी नेता आम नागरिकों की चुनौतियों से दूर रहते हैं, इसलिए वे जनसमस्याओं का प्रभावी समाधान देने में नाकाम रहते हैं,” उन्होंने लिखा।

थरूर ने सुझाव दिया कि भारत को इस प्रवृत्ति को समाप्त करने के लिए संरचनात्मक सुधार करने होंगे — जैसे

  • राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र और वास्तविक चुनाव प्रणाली,

  • कार्यकाल की कानूनी सीमाएँ, और

  • जनता को शिक्षित व सशक्त बनाना, ताकि वे नेताओं का चयन उनकी योग्यता और कार्य के आधार पर करें, न कि पारिवारिक पहचान से।

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उन्होंने चेताया कि जब तक भारतीय राजनीति एक “पारिवारिक उद्यम” बनी रहेगी, तब तक लोकतंत्र का असली अर्थ —

 

“जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए सरकार” — अधूरा रहेगा।

 

थरूर का यह बयान कांग्रेस के लिए एक बार फिर असहज स्थिति पैदा कर रहा है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से अब तक इस पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन अंदरखाने असंतोष के स्वर सुनाई दे रहे हैं। पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य ने नाम न बताने की शर्त पर कहा,

“थरूर समय-समय पर ऐसे बयान देते रहते हैं ताकि मीडिया में सुर्खियां बटोर सकें। यह कोई नई बात नहीं है।”

हालांकि भाजपा के कुछ नेताओं ने इस मुद्दे को तुरंत भुनाने की कोशिश की है। भाजपा प्रवक्ता ने सोशल मीडिया पर तंज कसते हुए लिखा कि “जब कांग्रेस के भीतर से ही सच्चाई सामने आ रही है, तो जनता को अब कुछ और समझाने की ज़रूरत नहीं।” एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने व्यंग्य में कहा, “देखना यह है कि इतनी खुली आलोचना के बाद कांग्रेस अब थरूर के खिलाफ क्या कार्रवाई करती है।”

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, शशि थरूर का यह लेख उस वक्त आया है जब कांग्रेस नेतृत्व लगातार यह छवि सुधारने में जुटा है कि वह सिर्फ एक परिवार की पार्टी नहीं, बल्कि एक संगठित वैचारिक दल है। पिछले कुछ वर्षों में राहुल गांधी ने “भारत जोड़ो यात्रा” और “न्याय के रास्ते पर कांग्रेस” जैसे अभियानों के जरिए जनता से सीधे संवाद स्थापित करने की कोशिश की है, लेकिन पार्टी के भीतर वंशवाद का मुद्दा बार-बार सिर उठाता रहा है।

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यह पहली बार नहीं है जब थरूर ने पार्टी लाइन से हटकर टिप्पणी की हो। इससे पहले भी वे संगठनात्मक सुधार, नेतृत्व में लोकतंत्र और वरिष्ठता बनाम योग्यता के मुद्दों पर खुलकर अपनी राय रखते रहे हैं। कई मौकों पर उनकी स्पष्टवादिता ने पार्टी के भीतर असहजता पैदा की है, पर उनके समर्थक कहते हैं कि थरूर “कांग्रेस में बौद्धिक आत्मनिरीक्षण की जरूरत” की बात कर रहे हैं।

थरूर ने अपने लेख में इस प्रवृत्ति को भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी संरचनात्मक चुनौती बताया है। उन्होंने कहा कि जब राजनीतिक दलों में नेतृत्व परिवारों तक सीमित रह जाता है, तो योग्य और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के लिए अवसर सिमट जाते हैं। इससे लोकतंत्र केवल नाम का रह जाता है, और जनता के सामने विकल्प सीमित हो जाते हैं।

उन्होंने यह भी लिखा कि भारत को अब “योग्यता आधारित लोकतांत्रिक पुनर्जागरण” (democratic merit-based renaissance) की दिशा में बढ़ना चाहिए — ऐसा सिस्टम, जहाँ नेतृत्व विचार, दृष्टिकोण और सेवा भावना के आधार पर तय हो, न कि पारिवारिक उपनाम पर।

पार्टी सूत्रों के अनुसार, कांग्रेस नेतृत्व इस लेख पर कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया देने से बच रहा है ताकि विवाद को और हवा न मिले। वहीं, सोशल मीडिया पर थरूर के बयान को लेकर तीखी बहस छिड़ी हुई है — एक पक्ष उन्हें “साहसी और सुधारक” कह रहा है, तो दूसरा पक्ष “स्वयं प्रचारक” बताकर आलोचना कर रहा है।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि शशि थरूर की यह टिप्पणी न केवल कांग्रेस बल्कि भारतीय राजनीति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में वंशवाद बनाम योग्यता की पुरानी बहस को फिर से केंद्र में ले आई है।

फिलहाल, कांग्रेस चुप है  लेकिन थरूर की यह टिप्पणी उस असहज सच्चाई की याद दिला रही है, जिसे भारतीय राजनीति दशकों से नजरअंदाज करती आई है:
“नेतृत्व पद मिलना चाहिए कर्म से, न कि कुल से।”

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