
ज्योतिषशास्त्र में गुरु और शनि की युति को विशेष महत्व दिया गया है और इसे धर्मकर्माधिपति योग कहा जाता है। परंपरागत दृष्टि से गुरु को भाग्य का स्वामी और कारक माना जाता है, जबकि शनि कर्म भाव का स्वामी और कारक है। कालपुरुष की कुंडली के अनुसार इस युति का प्रभाव जातक के जीवन के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर पड़ता है।
पराशर ज्योतिष के अनुसार गुरु को तीन दृष्टियां प्रदान की गई हैं—पंचम, सप्तम और नवम। वहीं शनि को भी तीन विशेष दृष्टियां दी गई हैं—तृतीय, सप्तम और दशम। दोनों ग्रहों की दृष्टियों में मूलतः अंतर है। गुरु जिस स्थान पर बैठेगा, वहां वह स्थान की हानि करेगा, जबकि शनि जिस स्थान पर स्थित होगा, वह स्थान की वृद्धि करेगा।
गुरु की पंचम दृष्टि उस भाव से ज्ञान और सीख प्रदान करती है। सप्तम दृष्टि अमृत समान फल देती है, जबकि नवम दृष्टि से भाग्य में वृद्धि होती है और जातक को संबंधित भाव से कई अवसर प्राप्त होते हैं। गुरु की दृष्टियाँ जीवन में सकारात्मक परिणाम लाती हैं और व्यक्ति के भाग्य को सुदृढ़ करती हैं।
इसके विपरीत शनि की दृष्टियाँ कठोर और कर्म प्रधान मानी गई हैं। शनि की दृष्टि जिस भी भाव पर होगी, जातक को वहां अधिक मेहनत करनी होगी और संबंधित रिश्तों या परिस्थितियों को संभालने के लिए प्रयास बढ़ाना होगा। शनि की सप्तम दृष्टि विशेष रूप से विच्छेद कारक मानी जाती है। उदाहरण के लिए, यदि यह दृष्टि करियर से संबंधित भाव पर हो, तो करियर के लिए लाभकारी रहेगी, लेकिन रिश्तों में कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी। शनि की दशम दृष्टि जिस भी भाव पर होगी, जातक को वहां कर्म करना आवश्यक है, तभी सफलता मिलती है।
इस प्रकार गुरु और शनि की युति जीवन के विभिन्न पहलुओं—भाग्य, कर्म, ज्ञान और संबंध—पर गहरा प्रभाव डालती है। ज्योतिषाचार्यों का मानना है कि इस योग के दौरान ग्रहों की स्थिति और दृष्टि का सही अध्ययन करके अपने कार्य, निर्णय और संबंधों में संतुलन बनाए रखना चाहिए।




