इंटरमिटेंट फास्टिंग हर किसी के लिए सही नहीं, वजन घटाने के इस बढ़ते ट्रेंड पर डॉक्टर की वैज्ञानिक राय

11
Advertisement

आज वजन कम करने के तरीके जितनी तेज़ी से बदल रहे हैं, उतनी ही तेजी से उनके दावे भी सोशल मीडिया पर वायरल होते जा रहे हैं. हाल के महीनों में इंटरमिटेंट फास्टिंग यानी IF को लेकर देश-दुनिया में अभूतपूर्व उत्साह देखने को मिला है. फिटनेस इन्फ्लुएंसर्स, वेट-लॉस कोच और हजारों कंटेंट क्रिएटर्स इसे लगभग जादुई फार्मूला बताकर पेश कर रहे हैं. लेकिन क्या यह तरीका हर किसी के लिए काम करता है? क्या इंटरमिटेंट फास्टिंग वाकई शरीर के मेटाबॉलिज्म, मानसिक स्वास्थ्य और बीमारियों से बचाव में योगदान देती है? या फिर इसके पीछे कुछ ऐसी सावधानियाँ भी छिपी हैं, जिनका पता आम लोगों को नहीं होता?

इसी बहस के बीच हार्वर्ड और स्टैनफोर्ड जैसे शीर्ष संस्थानों से प्रशिक्षित गैस्ट्रोएंटरोलॉजिस्ट डॉ. सौरभ सेठी का ताज़ा वैज्ञानिक विश्लेषण सामने आया है, जिसे उनके सोशल मीडिया वीडियो ने बड़े पैमाने पर चर्चा में ला दिया है. अपने वीडियो में डॉ. सेठी ने बताया कि इंटरमिटेंट फास्टिंग एक उपयोगी और वैज्ञानिक रूप से समर्थित तकनीक है, लेकिन यह सार्वभौमिक समाधान नहीं है. उन्होंने यह भी साफ किया कि लोग अक्सर IF को “फास्ट वेट-लॉस शॉर्टकट” की तरह प्रचारित करते हैं, जबकि इसके प्रभाव व्यक्ति-विशेष की जीवनशैली, मेडिकल हिस्ट्री और खान-पान की आदतों पर निर्भर करते हैं.

डॉ. सेठी के अनुसार इंटरमिटेंट फास्टिंग का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह वजन घटाने में मदद करती है, वह भी बिना मेटाबॉलिज्म को धीमा किए—जो कि सामान्य डाइटिंग में अक्सर होती है. शरीर लंबे समय तक उपवास की अवस्था में जाकर फॅट-बर्निंग को सक्रिय करता है. इसी कारण फैटी लिवर, इंसुलिन रेजिस्टेंस और उच्च ब्लड शुगर जैसे मामलों में IF फायदेमंद भूमिका निभा सकता है. कई लोगों में इसका प्रभाव ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल और सूजन पर भी देखा गया है. कुछ अध्ययन यह भी संकेत देते हैं कि IF पीसीओएस से जूझ रही महिलाओं में हार्मोनल असंतुलन को कुछ हद तक संतुलित कर सकता है.

यहां भी पढ़े:  मेक्सिको में 'जेनरेशन ज़ेड विरोध प्रदर्शन' ने पकड़ा ज़ोर, हिंसक झड़पों के बाद राष्ट्रपति ने लगाया विदेशी फंडिंग का आरोप

मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में भी IF से जुड़े दिलचस्प निष्कर्ष मिल रहे हैं. डॉ. सेठी बताते हैं कि शुरुआती शोध इस बात की ओर इशारा करते हैं कि इंटरमिटेंट फास्टिंग दिमाग में ऐसे केमिकल्स की सक्रियता बढ़ा सकती है जो मूड बेहतर करते हैं और डिप्रेशन के लक्षणों को कम कर सकते हैं. अल्ज़ाइमर और न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारियों के जोखिम पर IF की सकारात्मक भूमिका के भी संकेत मिले हैं, हालांकि इसे अभी निर्णायक रूप से सिद्ध नहीं कहा जा सकता. यह वह पहलू है जो इस फास्टिंग पद्धति को केवल वजन नियंत्रित करने का साधन नहीं, बल्कि एक विस्तृत स्वास्थ्य विकल्प बनाने की दिशा में ले जाता है.

लेकिन कहानी का दूसरा पक्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. डॉ. सेठी कहते हैं कि इंटरमिटेंट फास्टिंग हर किसी के लिए सुरक्षित नहीं है. कुछ लोगों के शरीर में प्रोटीन की कमी पहले से होती है. ऐसे लोग जब लंबे उपवास करते हैं तो यह मांसपेशियों में गिरावट का कारण बन सकता है. शरीर जब भोजन से ऊर्जा नहीं ले पाता तो मांसपेशियों का टिश्यू ऊर्जा में बदलने लगता है—जो फिटनेस, ताकत और इम्युनिटी के लिए घातक है. इसलिए बिना उचित प्रोटीन सेवन के IF करना जोखिम भरा हो सकता है.

यहां भी पढ़े:  मणिपुर में संघ प्रमुख मोहन भागवत का बड़ा बयान: ‘हिंदू नहीं तो दुनिया का अस्तित्व नहीं…’ जानिए क्या कहा

एथलीट्स और रूटीन एक्सरसाइज करने वालों के लिए भी कुछ सावधानियाँ जरूरी हैं. फास्टिंग विंडो लंबी होने पर शरीर की ऊर्जा कम होती है और एथलेटिक परफॉर्मेंस में गिरावट देखी जाती है. ऐसे लोग अगर वर्कआउट से ठीक पहले या तुरंत बाद कुछ नहीं खाते तो चक्कर आना, मसल-फटीग और कमज़ोरी जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं. महिलाओं के मामले में भी विशेषज्ञ बताते हैं कि लंबे समय की फास्टिंग विंडो हार्मोनल साइकिल को प्रभावित कर सकती है. खासकर उन महिलाओं में जिन्होंने पहले से हार्मोनल समस्याओं का सामना किया हो, उनके लिए IF कम सुरक्षित हो सकता है.

इंटरमिटेंट फास्टिंग पर हॉर्वर्ड के अध्ययन भी बताते हैं कि इसके बहुत से फायदे हैं—जैसे कोशिकाओं का पुनर्निर्माण, तनाव में कमी और शरीर को सूजन-रोधी अवस्था में ले जाना. इसके साथ-साथ IF इंसुलिन को कम करता है, जिससे टाइप-2 डायबिटीज का खतरा घटता है. ये निष्कर्ष IF को वैज्ञानिक दृष्टि से स्वीकार्य बनाते हैं. लेकिन इन अध्ययनों का यह भी स्पष्ट निष्कर्ष है कि IF एक “वन-साइज़-फिट्स-ऑल” समाधान नहीं है. इसे शुरू करने से पहले शरीर की आवश्यकताओं, कैलोरी जरूरतों और मेडिकल स्थितियों का मूल्यांकन जरूरी है.

डॉक्टर सेठी यह भी चेतावनी देते हैं कि इंटरमिटेंट फास्टिंग का पालन अगर बिना किसी अनुभवी या प्रमाणित न्यूट्रिशन कोच की मदद के किया जाए तो इसके साइड इफेक्ट गंभीर हो सकते हैं. कई लोग सोशल मीडिया पर देखे गए सुझावों के आधार पर अचानक 16 से 20 घंटे की फास्टिंग शुरू कर देते हैं, जबकि शरीर को इस बदलाव में समय चाहिए. ऐसी स्थिति में सिरदर्द, चक्कर, ब्लड शुगर में गिरावट, दिल की धड़कन तेज होना और व्यवहार में चिड़चिड़ापन जैसे दुष्प्रभाव हो सकते हैं. वे कहते हैं कि वजन घटाने के लिए IF तभी कारगर और सुरक्षित है जब इसे संतुलित डाइट, सही नींद और नियमित वर्कआउट के साथ संयोजित किया जाए.

यहां भी पढ़े:  पार्सल नियमों में रेलवे का बदलाव, छोटे व्यापारी भी कम पैसे में भेज सकेंगे अपना माल

आज सोशल मीडिया पर छाई फिटनेस संस्कृति में लोग तेजी से उन तरीकों की ओर भाग रहे हैं जो त्वरित परिणाम देने का दावा करते हैं. इंटरमिटेंट फास्टिंग निश्चित रूप से एक प्रभावी और वैज्ञानिक तरीका है, लेकिन यह किसी जादुई समाधान की तरह नहीं है. यह शरीर की आवश्यकताओं, मेडिकल पृष्ठभूमि और व्यक्तिगत जीवनशैली के हिसाब से ही असर दिखाता है. डॉ. सौरभ सेठी की वैज्ञानिक दृष्टि इस बात की याद दिलाती है कि वजन घटाने और स्वास्थ्य बनाए रखने का रास्ता कोई शॉर्टकट नहीं, बल्कि समझ-बूझ और शरीर के संकेतों का सम्मान करने से बनता है.

इंटरमिटेंट फास्टिंग अपनाने से पहले निश्चित रूप से यह सोचना जरूरी है कि क्या यह तरीका आपकी जीवनशैली, आपकी ऊर्जा जरूरतों और आपकी स्वास्थ्य पृष्ठभूमि के अनुरूप है. क्योंकि हर वह तरीका जो दूसरों के लिए फायदेमंद हो, वह आपके लिए सुरक्षित हो—यह ज़रूरी नहीं.

Advertisement