हैदराबाद. तेलंगाना की राजनीति में दलबदल और अयोग्यता की कानूनी लड़ाई ने उस समय एक नया और नाटकीय मोड़ ले लिया जब विधानसभा अध्यक्ष गद्दाम प्रसाद कुमार ने भारत राष्ट्र समिति के पांच विधायकों के खिलाफ दायर अयोग्यता याचिकाओं को सिरे से खारिज कर दिया। इस फैसले ने न केवल राज्य के सियासी गलियारों में हलचल पैदा कर दी है बल्कि दलबदल कानून और लोकतांत्रिक मूल्यों पर एक नई बहस को भी जन्म दे दिया है। साल 2023 के विधानसभा चुनावों के बाद बीआरएस छोड़कर कांग्रेस का दामन थामने वाले इन विधायकों के भविष्य पर लंबे समय से तलवार लटक रही थी लेकिन बुधवार को आए इस आदेश ने उन्हें तात्कालिक और बड़ी राहत प्रदान की है। आम जनता के बीच इस बात को लेकर भारी उत्सुकता बनी हुई थी कि क्या इन विधायकों की सदस्यता रद्द होगी या फिर वे सत्ता पक्ष के साथ अपनी पारी जारी रख पाएंगे। विधानसभा अध्यक्ष ने अपने फैसले के पीछे सबूतों के अभाव का हवाला दिया है जिसने विपक्षी दल बीआरएस को आक्रोशित कर दिया है।
जिन विधायकों को इस फैसले से संजीवनी मिली है उनमें भद्राचलम के विधायक तल्लम वेंकट राव, गडवाल के विधायक बंदला कृष्ण मोहन रेड्डी, राजेंद्रनगर के विधायक टी प्रकाश गौड़, पाटनचेरु के विधायक गुडेम महिपाल रेड्डी और सेरिलिंगमपल्ली के विधायक आरेकापुडी गांधी शामिल हैं। इन पांचों चेहरों ने चुनाव परिणाम आने के कुछ ही समय बाद अपनी मूल पार्टी बीआरएस को अलविदा कहकर कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया था। बीआरएस ने इसे दलबदल कानून का स्पष्ट उल्लंघन बताते हुए विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष कड़ी कानूनी चुनौती पेश की थी और इनकी सदस्यता समाप्त करने की मांग की थी। हालांकि लंबी सुनवाई और कानूनी दलीलों के बाद अध्यक्ष ने यह माना कि विधायकों के खिलाफ लगाए गए आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त और ठोस साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए हैं। इस तकनीकी आधार ने न केवल इन पांचों विधायकों की कुर्सी बचा ली है बल्कि कांग्रेस सरकार के भीतर उनके प्रभाव को भी कानूनी सुरक्षा प्रदान कर दी है।
जैसे ही इस फैसले की प्रति सार्वजनिक हुई वैसे ही बीआरएस खेमे में नाराजगी की लहर दौड़ गई। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष के.टी. रामा राव (केटीआर) ने इस आदेश पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे लोकतंत्र के साथ एक 'क्रूर मजाक' करार दिया है। केटीआर का आरोप है कि विधानसभा अध्यक्ष स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर रहे हैं बल्कि वे सत्ता के दबाव में हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी के उस पुराने बयान को भी याद दिलाया जिसमें सदन के भीतर यह दावा किया गया था कि पाला बदलने वाले विधायकों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। विपक्ष का मानना है कि जब मुख्यमंत्री खुद सदन के पटल पर ऐसी बातें कहते हैं तो विधानसभा अध्यक्ष के फैसले की निष्पक्षता पर सवाल उठना लाजिमी है। जनता इस पूरे प्रकरण को एक सियासी शतरंज के रूप में देख रही है जहां मोहरों को बचाने के लिए नियमों की व्याख्या अपने-अपने तरीके से की जा रही है।
इस पूरे घटनाक्रम ने दलबदल विरोधी कानून की प्रभावशीलता पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। लोगों के मन में यह जिज्ञासा है कि अगर खुलेआम पार्टी बदलने के बाद भी सबूतों की कमी रह जाती है तो फिर इस कानून का मूल उद्देश्य क्या है। तेलंगाना की राजनीति में यह कोई पहला मामला नहीं है जहां विपक्षी विधायकों ने सत्ता पक्ष का रुख किया हो लेकिन इस बार के फैसले ने इसलिए सुर्खियां बटोरी हैं क्योंकि अभी 10 में से केवल 5 विधायकों के भाग्य का फैसला हुआ है। शेष पांच विधायकों की याचिकाओं पर भविष्य में क्या रुख अपनाया जाता है इस पर सबकी नजरें टिकी हुई हैं। यह मामला अब केवल विधानसभा तक सीमित नहीं रहने वाला है क्योंकि बीआरएस नेतृत्व ने संकेत दिए हैं कि वे इस आदेश को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला कांग्रेस के लिए एक रणनीतिक जीत है क्योंकि इससे पार्टी को सदन के भीतर अपनी संख्यात्मक शक्ति को मजबूत बनाए रखने में मदद मिलेगी। वहीं बीआरएस के लिए यह एक बड़ा झटका है जो अपने कुनबे को बिखरने से रोकने के लिए कानूनी लड़ाई का सहारा ले रही थी। आम लोगों के बीच चर्चा इस बात की भी है कि क्या सबूतों की कमी महज एक तकनीकी बहाना है या वास्तव में याचिकाकर्ताओं की ओर से दस्तावेजी कार्रवाई में कोई बड़ी चूक हुई है। जैसे-जैसे यह खबर फैली हैदराबाद की सड़कों से लेकर जिलों की चौपालों तक लोग इस बात का विश्लेषण कर रहे हैं कि क्या अब राजनीति में निष्ठा और विचारधारा का कोई महत्व रह गया है। तेलंगाना का यह सियासी ड्रामा आने वाले दिनों में और अधिक रोचक होने की उम्मीद है क्योंकि कानूनी लड़ाई का अगला अध्याय अब अदालतों के गलियारों में लिखा जाएगा।

































