
अनिल मिश्र/नालंदा
विश्व को शिक्षा की दिशा देने वाले प्राचीन नालंदा की धरती पर एक बार फिर ज्ञान, विचार और साहित्य का उजास लौट आया है। बिहार के गौरवशाली अतीत की साक्षी नालंदा में 21 से 25 दिसंबर तक पहली बार आयोजित नालंदा साहित्यिक महोत्सव 2025 ने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में एक नई शुरुआत कर दी है। राजगीर कन्वेंशन सेंटर में शुरू हुए इस पांच दिवसीय महोत्सव को नालंदा की उस बौद्धिक परंपरा के पुनर्जागरण के रूप में देखा जा रहा है, जिसने सदियों तक विश्व को सोचने की दिशा दी थी।
प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की वैश्विक ख्याति से प्रेरित यह आयोजन केवल साहित्यिक संवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय ज्ञान परंपरा और आधुनिक विचार विमर्श के बीच सेतु बनाने का प्रयास भी है। कभी एशिया के सबसे बड़े बौद्धिक केंद्र के रूप में पहचाने जाने वाले नालंदा ने एक बार फिर यह संकेत दिया है कि वह इतिहास की धरोहर भर नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य का भी जीवंत केंद्र बन सकता है।
महोत्सव के उद्घाटन सत्र में बिहार के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने भारतीय ज्ञान परंपरा की गहराई और निरंतरता को रेखांकित करते हुए कहा कि यही वह विशेषता है, जिसने भारतीय सभ्यता को हजारों वर्षों तक जीवंत बनाए रखा। उन्होंने कहा कि भारत की परंपरा समय के थपेड़ों में नष्ट नहीं हुई, बल्कि सतत प्रवाह के साथ आगे बढ़ती रही। राज्यपाल ने संस्कृत के एक प्राचीन श्लोक का उल्लेख करते हुए कहा कि संसार भले ही विष वृक्ष के समान हो, लेकिन इसके दो अमृत फल हैं—साहित्य और सज्जनों का संग। उनके अनुसार साहित्य, कला, नृत्य और संगीत का मूल उद्देश्य मानव को परम सत्य के निकट ले जाना है।
अपने संबोधन में उन्होंने उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता और भारतीय दर्शन का संदर्भ देते हुए कहा कि विद्या के दो रूप—अपरा और परा—मानव जीवन को संतुलन प्रदान करते हैं। परा विद्या आत्मबोध की ओर ले जाती है और वही मानव को संकीर्णताओं से मुक्त करती है। स्वामी विवेकानंद और रवींद्रनाथ टैगोर के विचारों का उल्लेख करते हुए राज्यपाल ने कहा कि भारत केवल सहिष्णुता की बात नहीं करता, बल्कि सम्मान और स्वीकार की भावना को जीता है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि आज विश्व में हिंसा और घृणा बढ़ रही है, तो भारत को अपने शांति और करुणा के संदेश को और अधिक प्रभावी ढंग से विश्व तक पहुंचाने की आवश्यकता है।
उद्घाटन सत्र में कांग्रेस सांसद और प्रसिद्ध लेखक शशि थरूर ने प्राचीन नालंदा की गौरवशाली परंपरा को स्मरण करते हुए साहित्यिक और भाषाई विविधता के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि नालंदा केवल इतिहास का अध्याय नहीं, बल्कि ज्ञान की अनुशासित खोज का प्रतीक रहा है। थरूर के अनुसार नालंदा का अर्थ ही ज्ञान देने वाला है और यह नाम उस विश्वविद्यालय के चरित्र को पूरी तरह अभिव्यक्त करता है, जहां सीखने और विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया कभी रुकी नहीं।
उन्होंने कहा कि दुनिया के पहले आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में नालंदा एक ऐसा बौद्धिक मंच था, जहां ज्ञान को निष्क्रिय रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था, बल्कि उस पर प्रश्न उठाए जाते थे, बहस होती थी और उसे निरंतर परिष्कृत किया जाता था। उन्होंने यह भी स्मरण कराया कि नालंदा विश्वविद्यालय अपने इतिहास में कई बार नष्ट हुआ और पुनर्निर्मित हुआ, लेकिन उसकी आत्मा कभी समाप्त नहीं हुई। थरूर ने उम्मीद जताई कि आधुनिक नालंदा का यह पुनर्जागरण स्थायी सिद्ध होगा और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनेगा।
इस अवसर पर सांसद डॉ. सोनल मानसिंह, पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय के सचिव चंचल कुमार, नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सचिन चतुर्वेदी, नव नालंदा महाविहार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सिद्धार्थ सिंह, महोत्सव की अध्यक्ष दिया आलिया सहित देश-विदेश से आए अनेक विद्वान और साहित्यकार उपस्थित रहे। ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, स्वीडन, वियतनाम, श्रीलंका और जापान से आए बौद्ध भिक्षुओं की सहभागिता ने इस आयोजन को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया।
नालंदा साहित्यिक महोत्सव केवल एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक चेतना का उत्सव है, जो भारत की आत्मा में सदियों से प्रवाहित होती रही है। यह आयोजन नालंदा को एक बार फिर वैश्विक साहित्यिक मानचित्र पर सशक्त उपस्थिति दिलाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।

































