जलती धरती और डूबती अर्थव्यवस्था ने दुनिया को हिलाया, साल 2025 में जलवायु आपदाओं से खाक हुए 120 अरब डॉलर

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नई दिल्ली. दुनिया के लिए साल 2025 केवल एक कैलेंडर बदलने का समय नहीं था, बल्कि यह कुदरत के उस भयावह तांडव का गवाह बना जिसने इंसान की बेबसी को पूरी दुनिया के सामने बेपार्दा कर दिया है. क्रिश्चियन एड (Christian Aid) की हालिया और चौंकाने वाली रिपोर्ट 'Counting the Cost 2025' ने वैश्विक समुदाय की नींद उड़ा दी है. इस रिपोर्ट के अनुसार, बीते एक साल में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाओं ने दुनिया की झोली से 120 अरब डॉलर से अधिक की संपत्ति छीन ली है. यह केवल एक आर्थिक आंकड़ा नहीं है, बल्कि उन करोड़ों लोगों की सिसकियाँ हैं जिनके घर उजड़ गए, उन किसानों की बेबसी है जिनकी फसलें जलकर खाक हो गईं और उन बच्चों का भविष्य है जो अब कुदरत के इस बेकाबू मिजाज के साये में जीने को मजबूर हैं.

इस तबाही की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि साल 2025 के दौरान दुनिया ने कम से कम दस ऐसी बड़ी आपदाओं का सामना किया, जिनमें से हर एक ने अकेले दम पर एक अरब डॉलर से ज्यादा का आर्थिक घाव दिया है. अमेरिका के कैलिफोर्निया के जंगलों में लगी 'पैलिसेड्स' और 'ईटन' की भीषण आग ने इस साल दुनिया को सबसे गहरा जख्म दिया, जिससे अकेले 60 अरब डॉलर से अधिक का नुकसान दर्ज किया गया और करीब 400 लोगों की मौत हुई. वहीं दूसरी ओर, नवंबर के महीने में दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में आए विनाशकारी चक्रवातों और बाढ़ ने प्रकृति के असंतुलन की एक डरावनी कहानी लिखी, जहां 1,750 से अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और करीब 25 अरब डॉलर की संपत्ति पानी में बह गई. यह विनाशकारी चक्र अब किसी एक देश तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है.

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भारत और पाकिस्तान के लिए तो साल 2025 का मानसून किसी कयामत से कम साबित नहीं हुआ. जून से सितंबर के बीच भारत और पाकिस्तान में आई भीषण बाढ़ और भूस्खलन ने मानवीय त्रासदी का ऐसा मंजर पेश किया जिसे देख रूह कांप जाए. इस आपदा में 1,860 से ज्यादा जिंदगियां काल के गाल में समा गईं और करीब 5.6 अरब डॉलर का भारी-भरकम आर्थिक नुकसान हुआ. रिपोर्ट का सबसे कड़वा सच यह है कि एशिया, जो दुनिया के उन हिस्सों में शामिल है जहां वैश्विक उत्सर्जन में योगदान तुलनात्मक रूप से कम है, वहां तबाही का मंजर सबसे ज्यादा भयानक रहा. चीन में भी आई बाढ़ ने 11.7 अरब डॉलर की चोट पहुंचाई. यह जलवायु अन्याय की वह तस्वीर है जहां गलती किसी और की है और सजा कोई और भुगत रहा है.

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विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने इस रिपोर्ट के जरिए दुनिया को साफ चेतावनी दी है कि इन आपदाओं को 'प्राकृतिक' कहकर पल्ला झाड़ना अब मुमकिन नहीं है. इम्पीरियल कॉलेज लंदन की प्रोफेसर जोआना हेग ने बेहद तल्ख लहजे में कहा है कि यह तबाही जीवाश्म ईंधन पर हमारी अटूट निर्भरता और राजनीतिक टालमटोल का परिणाम है. स्कॉटलैंड जैसे ठंडे इलाकों में 47,000 हेक्टेयर जंगल का जलना और समुद्रों के तापमान का रिकॉर्ड स्तर पर पहुँचना इस बात का साक्ष्य है कि अब प्रकृति के पास सहने की क्षमता खत्म हो चुकी है. क्रिश्चियन एड के सीईओ पैट्रिक वॉट ने दो-टूक शब्दों में कहा है कि यह पीड़ा एक 'राजनीतिक विकल्प' का नतीजा है; अगर सरकारें अब भी जीवाश्म ईंधन से दूरी नहीं बनातीं, तो इसकी कीमत सबसे कमजोर समुदायों को ही चुकानी पड़ेगी.

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आज जब हम 2025 के इन डरावने आंकड़ों को देख रहे हैं, तो सवाल सिर्फ यह नहीं होना चाहिए कि हमने कितना खो दिया है. असली सवाल यह है कि क्या दुनिया के पास अब भी वह साहस बचा है जो आने वाली और भी बड़ी तबाही को रोक सके? समुद्रों का बढ़ता स्तर और साल दर साल टूटते गर्मी के रिकॉर्ड हमें चीख-चीख कर बता रहे हैं कि वक्त हाथ से निकला जा रहा है. यह रिपोर्ट महज एक दस्तावेज नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए 'रेड अलर्ट' है. अगर अब भी वैश्विक स्तर पर ठोस फैसले नहीं लिए गए, तो आने वाले सालों में 120 अरब डॉलर का यह नुकसान तो महज एक शुरुआत भर मानी जाएगी.

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