नए साल का सूर्योदय / महकें हर नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल

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नए साल का सूर्योदय

— डॉ. प्रियंका सौरभ

पल-पल खेल निराले हो,
आँखों में सपने पाले हो.
नए साल का सूर्योदय यह,
खुशियों के लिए उजाले हो॥

मानवता का संदेश फैलाते,
मस्जिद और शिवाले हो.
नीर प्रेम का भरा हो सब में,
ऐसे सब के प्याले हो॥

होली जैसे रंग हो बिखरे,
दीपों की बारात सजी हो,
अंधियारे का नाम न हो,
सबके पास उजाले हो॥

हो श्रद्धा और विश्वास सभी में,
नैतिक मूल्य पाले हो.
संस्कृति का करे सब पूजन,
संस्कारों के रखवाले हो॥

चौराहें न लुटे अस्मत,
दु:शासन न फिर बढ़ पाए,
भूख, गरीबी, आतंक मिटे,
न देश में धंधे काले हो॥

सच्चाई को मिले आज़ादी,
लगे झूठ पर ताले हो.
तन को कपड़ा, सिर को साया,
सबके पास निवाले हो॥

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दर्द किसी को छू न पाए,
न किसी आँख से आँसू आए,
झोंपड़ियों के आँगन में भी,
खुशियों की फैली डाले हो॥

‘जिए और जीने दे’ सब,
न चलते बरछी-भाले हो.
हर दिल में हो भाईचारा,
नाग न पलते काले हो॥

नगमों-सा हो जाए जीवन,
फूलों से भर जाए आँगन,
सुख ही सुख मिले सभी को,
एक दूजे को संभाले हो॥

महकें हर नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल

— डॉ. सत्यवान सौरभ

बने विजेता वह सदा, ऐसा मुझे यक़ीन.
आँखों में आकाश हो, पाँवों तले ज़मीन॥

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तू भी पाएगा कभी, फूलों की सौगात.
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगे हालात॥

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बीते कल को भूलकर, चुन डालें सब शूल.
महकें हर नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल॥

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तूफ़ानों से मत डरो, कर लो पैनी धार.
नाविक बैठे घाट पर, कब उतरें हैं पार॥

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छाले पाँवों में पड़े, मान न लेना हार.
काँटों में ही है छुपा, फूलों का उपहार॥

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भँवर सभी जो भूलकर, ले ताक़त पहचान.
पार करे मझधार वो, सपनों का जलयान॥

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तरकश में हो हौसला, कोशिश के हों तीर.
साथ जुड़ी उम्मीद हो, दे पर्वत को चीर॥

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नए दौर में हम करें, फिर से नया प्रयास.
शब्द क़लम से जो लिखें, बन जाए इतिहास॥

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आसमान को चीरकर, भरते वही उड़ान.
जवाँ हौसलों में सदा, होती जिनके जान॥

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उठो चलो, आगे बढ़ो, भूलो दुःख की बात.
आशाओं के रंग से, भर लो फिर जज़्बात॥

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छोड़े राह पहाड़ भी, नदियाँ मोड़ें धार.
छू लेती आकाश को, मन से उठी हुँकार॥

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हँसकर सहते जो सदा, हर मौसम की मार.
उड़े वही आकाश में, अपने पंख पसार॥

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हँसकर साथी गाइए, जीवन का ये गीत.
दुःख सरगम-सा जब लगे, मानो अपनी जीत॥

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सुख-दुःख जीवन की रही, बहुत पुरानी रीत.
जी लें, जी भर ज़िंदगी, हार मिले या जीत॥

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ख़ुद से ही कोई यहाँ, बनता नहीं कबीर.
सहनी पड़ती हैं उसे, जाने कितनी पीर॥

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