अंतिम आशा का महामंत्र: 'शाक्त विजय स्तोत्रम्' ही हर युद्ध की गारंटी! श्रीराम ने भी इसी पाठ से पाई थी रावण पर विजय

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शाक्त विजय स्तोत्रम् पाठ से गारंटी से नर नारी , देव , किन्नर , गंधर्व आदि को विजय मिलती है। । शत्रु रोयेंगे। बस देवी के इस स्तोत्र का आश्रय ले लो। भगवान श्रीराम ने भी इसी स्तोत्र से विजय प्राप्त की ।

भगवान श्रीराम द्वारा देवी की स्तुति –

इस स्तोत्र से सदा जीत ( विजय ) होती रहेगी पर पापमार्ग में विजय न मांगे। यह विजय स्तोत्र कल्पवृक्षस्वरुप है। इसमें मात्र 16श्लोक है।

इसे अक्षय नवमी पर या युगादि व मन्वादि तिथियों पर

कम से कम 11 बार पढ़े। और नित्य शुभ मुहूर्त से आरंभ करके 1-1 बार । यह विजय का मूल मंत्र है।

जो सारे प्रयास करके हार चुका और हताश हो गया उसे रोना छोड़कर इस स्तोत्र की शरण लेना चाहिए।

( देवीपुराण अध्याय 44 से यह संकलित है )

पहले हिन्दी में देखें –

श्रीरामजी बोले- त्रिलोकवन्दनीया ! युद्धमें विजय देनेवाली ! कात्यायनि ! आपको बार-बार नमस्कार है। मुझपर प्रसन्न हों और मुझे विजय प्रदान करें। सर्वशक्तिमयी, दुष्ट शत्रुओंका निग्रह करनेवाली, दुष्टोंका संहार करनेवाली भगवती ! संग्राममें मुझे विजय प्रदान करें, आपको नमस्कार है। आप ही सभी प्राणियोंमें निवास करनेवाली परा शक्ति हैं, संग्राममें दुष्ट राक्षसका संहार करें और मुझे विजय प्रदान करें, आपको नमस्कार है। युद्धप्रिये ! शरणागतकी पीड़ा हरनेवाली ! [जगदम्बा !] युद्धमें मुझे विजय प्रदान करें, आपको नमस्कार है ॥ १-४॥

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हाथमें खट्वाङ्ग तथा खड्ग धारण करनेवाली एवं मुण्डमालासे सुशोभित विग्रहवाली भगवती ! विषम परिस्थितियोंमें जो आपका स्मरण करते हैं, उनका दुःख हरण कीजिये। शरणागत-प्रिये! आप अपने चरणकमलके अनुग्रहसे दीनताका नाश कीजिये, युद्धक्षेत्रमें शत्रुओंका विनाश कीजिये और मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है, पुनः नमस्कार है। आपका पराक्रम, रूप, सौन्दर्य तथा चरित्र अपरिमित होनेके कारण सम्पूर्ण रूपसे चिन्तनका विषय बन नहीं सकता। आप स्वयं भी अचिन्त्य हैं। मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है। जो लोग विपत्तियोंमें दुर्गतिका नाश करनेवाली आप भगवतीका स्मरण करते हैं, वे विषम परिस्थितियोंमें दुःखी नहीं होते। आप मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है ॥५-८ ॥

युद्धमें महिषासुरका मर्दन करनेवाली तथा शरणग्रहण करनेयोग्य हिमालयसुता! आप मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है। चण्डासुरका नाश करनेवाली प्रसन्नमुखी चण्डिके ! युद्धमें शत्रुओंका संहार कीजिये और मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है। रक्तवर्णके नेत्रवाली, रक्तरञ्जित दन्तपङ्किवाली तथा रक्तसे लिप्त शरीरवाली भगवती ! आप रक्तबीजका संहार करनेवाली हैं, आप मुझे विजय प्रदान करें, आपको नमस्कार है। निशुम्भ तथा शुम्भका संहार करनेवाली, जगत्की सृष्टि करनेवाली सुरेश्वरी! आप नित्य युद्धमें शत्रुओंका संहार कीजिये और मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है ॥ ९-१२॥ भवानी! आप सर्वदा इस सम्पूर्ण जगत्का पालन करती हैं। माता! आप इन दुष्ट राक्षसोंको मारकर इस विश्वकी रक्षा कीजिये। दुष्टोंका संहार करनेवाली भगवती! आप सबमें विद्यमान रहनेवाली शक्तिस्वरूपा हैं। जगन्माता! प्रसन्न होइये, मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है। दुराचारियोंका दमन करनेवाली तथा सदाचारियोंका सम्यक् पालन करनेवाली भगवती ! युद्धमें शत्रुओंका संहार कीजिये और मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है। शरणागतोंका दुःख दूर करनेवाली, कल्याण प्रदान करनेवाली जगन्माता कात्यायनी ! युद्धमें मुझे विजय प्रदान कीजिये और भयसे सदा रक्षा कीजिये ॥ १३-१६ ॥

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अथ श्री कात्यायनी विजय स्तोत्रम्

श्रीराम उवाच

नमस्ते त्रिजगद्वन्द्ये संग्रामे जयदायिनि ।

प्रसीद विजयं देहि कात्यायनि नमोऽस्तु ते ॥ १ ॥

सर्वशक्तिमये दुष्टरिपुनिग्रहकारिणि ।

दुष्टजृम्भिणि संग्रामे जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ २ ॥

त्वमेका परमा शक्तिः सर्वभूतेष्ववस्थिता ।

दुष्ट संहर संग्रामे जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ ३ ॥

रणप्रिये रक्तभक्षे मांसभक्षणकारिणि ।

प्रपन्नार्तिहरे युद्धे जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ ४ ॥

खट्वाङ्गासिकरे मुण्डमालाद्योतितविग्रहे ।

ये त्वां स्मरन्ति दुर्गेषु तेषां दुःखहरा भव ॥ ५ ॥

त्वत्पादपङ्कजादैन्यं नमस्ते शरणप्रिये।

विनाशय रणे शत्रून् जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ ६ ॥

अचिन्त्यविक्रमेऽचिन्त्यरूपसौन्दर्यशालिनि । अचिन्त्यचरितेऽचिन्त्ये जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ ७ ॥

ये त्वां स्मरन्ति दुर्गेषु देवीं दुर्गविनाशिनीम्।

नावसीदन्ति दुर्गेषु जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥

महिषासृप्रिये संख्ये महिषासुरमर्दिनि ।

शरण्ये गिरिकन्ये मे जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥

प्रसन्नवदने चण्डि चण्डासुरविमर्दिनि ।

संग्रामे विजयं देहि शत्रूञ्जहि नमोऽस्तु ते ॥ १० ॥

रक्ताक्षि रक्तदशने रक्तचर्चितगात्रके।

रक्तबीजनिहन्त्री त्वं जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ ११॥

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निशुम्भशुम्भसंहन्त्रि विश्वकर्त्रि सुरेश्वरि।

जहि शत्रून् रणे नित्यं जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ १२ ॥

भवान्येत जगत्सर्व त्वं पालयसि सर्वदा।

रक्ष विश्वमिदं मातर्हत्वैतान् दुष्टराक्षसान् ।। १३।

त्वं हि सर्वगता शक्तिर्दष्टमर्दनकारिणि ।

प्रसीद जगतां मातर्जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ १४।

दङ्क्तवृन्ददमनि सवृत्तपरिपालिनि ।

निपातय रणे शत्रूञ्जयं देहि नमोऽस्तु ते ॥ १५।

कात्यायनि जगन्मातः प्रपन्नार्तिहरे शिवे ।

संग्रामे विजयं देहि भयेभ्यः पाहि सर्वदा ॥ १६ ॥

इति श्री विजय स्तोत्रं संपूर्णम्

नमस्ते त्रिजगद्वन्द्ये, जयदायिनि रणरंग।

कात्यायनि कृपा करहु, जीतु सकल प्रसंग॥

दुष्टसंहारी शक्तिमयी, सर्वभूति अधीश।

प्रसीद रणमें मातु मेरी, करहु विजय सतीश॥

त्वमेका परमा शक्तिः, बससि सृष्टि सर्वांग।

दुष्ट विनाश करहु जननी, दो विजय प्रसंग॥

रक्तभक्षिणि मांसप्रिय, रणरंग में राग।

प्रपन्नजन हितकारिणि, हरो दुःख-अभाग॥

खट्वाङ्ग-खड्गधारिणि, मुण्डमाला भूषण।

स्मरण करैं जो संकटे, मिटे तासु दुःख गण॥

शरणागत हितकारिणि, चरण कमल प्रसाद।

शत्रु विनाश करहु मातु, दो विजय प्रसाद॥

अचिन्त्य रूप अचिन्त्य बल, अचिन्त्य चरित विशाल।

तेरे स्मरण सों जीत मिलै, कटै भव-जंजाल॥

जो दुःखदुगार में ध्यावत, दुर्गविनाशिनी नाम।

नावसीदत ते संकट में, पावत मातु सम्मान॥

महिषासुरमर्दिनि मातु, गिरिकन्या जय-कार।

संग्रामे शरण मैं आयो, दो विजय उपहार॥

प्रसन्नमुखि चण्डिके मातु, चण्डासुर वध कीन्ह।

रक्तबीज संहारिणि, जय जय देवी दीन॥

निशुम्भशुम्भसंहारी, सुरेश्वरि विश्वधाम।

शत्रु हरो रण में सदा, देहु विजय अभिराम॥

कात्यायनि जगन्माता, दुःखहारी शिवदाय।

भये सदा रक्षा करहु, देहु विजय सुहाय॥

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