पार्ट-3
अभिमनोज
लोकतंत्र की सबसे शांत और सुंदर क्रिया है-मतदाता का बूथ की ओर बढ़ना. उसका चलना धीमा होता है, पर उसके भीतर एक अजीब-सी गरिमा बहती है. उसके कदमों की आहट में किसी राजा की नहीं, बल्कि खुद जनतंत्र की प्रतिष्ठा बोलती है. पर 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव की सुबह जब मतदाता घरों से निकले, तो हवा में कहीं कोई अदृश्य दरार थी-एक बारीक, पर खलती हुई. यह दरार किसी दीवार में नहीं थी, बल्कि विश्वास में थी. वह विश्वास जो चुनाव और मतदाता के बीच सदियों से खड़ा है-अटूट, पवित्र और मौन.
उस सुबह के सूरज ने चाहे जितनी उजली किरणें बिखेरी हों, पर लोगों की आँखों में चमक कम और चिंता अधिक थी. कहीं कोई फुसफुसा रहा था-“नाम सूची से कट गया.” कोई कह रहा था-“सुना है, कुछ को दो-दो जगह वोट डालते पकड़ा गया.” कोई जोड़ देता“कहीं मशीन में गड़बड़ी न हो जाए.” और इन फ़ुसफ़ुसाहटों में सबसे ज्यादा बार सुना गया शब्द था-“वोट चोरी.”
“वोट चोरी”-यह शब्द भारतीय राजनीति में नया नहीं, पर 2025 में इसका अर्थ बदल गया था. यह अब बूथ कब्ज़े, गुंडों की धमकियों या रात के अंधेरे में भरी जाने वाली पर्चियों का खेल नहीं रहा. अब यह शब्द तकनीक, डेटा, मोबाइल ऐप, विशेष पुनरीक्षण, मतदाता सूची और एक पूरे प्रशासनिक तंत्र के इर्द-गिर्द घूम रहा था. दूसरी तरफ, राजनीतिक आरोपों की आँधी थी,विपक्ष इसे संगठित षड्यंत्र बताता, सत्ता पक्ष इसे राजनीति का शोर कहकर टाल देता. लेकिन जनता दोनों की बातों के बीच फँसी एक ऐसी नाव थी जिसे अपनी दिशा का भरोसा नहीं रह गया था.
राजनीति अब केवल तथ्यों से नहीं चलती; वह नैरेटिव से चलती है. इस चुनाव में “वोट चोरी” एक नैरेटिव का केंद्र बन गया. राहुल गांधी की “वोटर अधिकार यात्रा”, नेताओं के आरोप, सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो, और जमीनी स्तर पर लोगों की शिकायतें. इन सबने इस चुनाव को एक विशाल राजनीतिक बहस में बदल दिया. भाजपा का प्रतिरूप भी उतना ही स्पष्ट था. उन्होंने इसे विपक्ष का “डर फैलाने वाला अभियान” बताया. उन्होंने कहा- “मतदाता सूची में गड़बड़ी हो सकती है, लेकिन इसे साजिश कहना गलत है.” यानी विवाद दो ध्रुवों के बीच लगातार झूलता रहा.
लोकतंत्र में वोट केवल एक मत नहीं होता,वह भरोसे की कड़ी होता है. यदि यह टूट जाए, तो लोकतंत्र की पूरी इमारत डगमगा जाती है. 2025 के बिहार चुनाव में जो सबसे गहरी चोट लगी, वह यही थी- भरोसा.जब लोग अपने नाम सूची में नहीं पाते, जब बूथ पर अचानक मशीनें खराब बताई जाती हैं, जब कतार लंबी होती है पर आंकड़ों में मतदान प्रतिशत कम दर्ज होता है, तो नागरिक के मन में एक छोटा-सा बिंब उभरता है,“क्या मेरा वोट गायब कर दिया गया?” और यह प्रश्न, चाहे सत्य हो या भ्रम, लोकतंत्र के लिए उतना ही खतरनाक है जितना कोई सच्चा षड्यंत्र.
वोट चोरी का यह विवाद इसलिए भी बड़ा बन गया क्योंकि इसे कई जातीय समूहों और राजनीतिक मोर्चों ने “समुदाय के दबाए गए मतों” की कहानी बताकर और उग्र बनाया.
यह विवाद सिर्फ तकनीकी नहीं रहा,अब यह सामाजिक-राजनीतिक पहचान का प्रश्न बन गया था.
यदि यह 1980 का भारत होता, तो बूथ कब्जा, हथियार, गुंडागर्दी,यह सब केंद्र में होता.लेकिन 2025 में परिदृश्य बदल चुका था. अब विवाद था- डेटा का, डिजिटल सूची का, फार्म-7 का, ऑनलाइन डिलीशन का, फर्जी प्रविष्टियों का.कर्नाटक में डिलीशन स्कैम की खबरें, विभिन्न राज्यों में डुप्लीकेट वोटरों के आरोप, और एआई आधारित VVPAT ऑडिट के शोध,सभी इस बात की ओर संकेत कर रहे थे कि वोट चोरी का चेहरा बदल चुका है. वह अब दृश्य नहीं; अदृश्य था. गली-मोहल्ले में नज़र नहीं आता था; डेटा सेट में छिपा था.और इसी बदलाव ने विवाद को और गहरा बना दिया, क्योंकि लोग उस चीज़ से अधिक डरते हैं जिसके बारे में उन्हें ठीक-ठीक जानकारी नहीं होती.
बिहार चुनाव 2025 में यह विवाद एक तूफान में बदल गया. विपक्ष बोले-लाखों नाम काट दिए गए. कांग्रेस ने कहा, यह तकनीकी नहीं, राजनीतिक सफाई है. आम आदमी पार्टी के नेताओं ने दावा किया कि विशेष ट्रेनें चलाकर वोटरों का हस्तांतरण किया जा रहा है. कुछ रैलियों में यह आरोप गूंजा कि मृतकों के नाम जीवित रहे, पर जीवितों के नाम सूची से मिटा दिए गए. सोशल मीडिया पर एक-एक दावा ऐसे फैलता जैसे हर पोस्ट मतदाता के दिल में एक नई आशंका भर रही हो.
सत्ता पक्ष ने इसे हताशा का खेल बताया. उनका तर्क था-“अगर मृतक हटे हैं, तो इसमें राजनीति कहाँ?” कोई प्रवक्ता खबरिया चैनलों पर तेज़ आवाज़ में कहता-“डेटा सुधारा गया है, किसी का वोट नहीं छीना गया.” लेकिन यह बहस जितनी तेज़ होती गई, उतना ही जनता का विश्वास कमजोर पड़ता गया. लोकतंत्र में बहस जीतने वाला पक्ष नहीं, विश्वास जीतने वाला पक्ष टिकता है—और यही चुनाव का सबसे संवेदनशील मोड़ बन गया.
ग्रामीण मतदाता दार्शनिक होता है. वह कम बोलता है, पर राजनीति की नब्ज गहराई तक समझता है. बिहार के गाँवों का मतदाता राजनीति का पुराना छात्र है. वह खुशामद से नहीं, अनुभव से सीखता है. वह नारे से प्रभावित नहीं होता,पर जब उसके नाम चुनाव सूची से गायब होता है, तब वह संदेह से भर जाता है. वह हाथ जोड़कर कह देता है,“वोट तो हम डाल देंगे, पर गिनती कौन करेगा?” इस प्रश्न का उत्तर किसी भी मंच पर नहीं मिला. और जब किसी लोकतंत्र में इस तरह के प्रश्न जवाबों से अधिक पैदा होने लगे, तो लोकतंत्र की असली परीक्षा शुरू हो चुकी होती है.
इस बार वह परीक्षा केवल प्रशासन या चुनाव आयोग की नहीं थी,पूरे लोकतांत्रिक ढांचे की थी. मतदाता सूची अचानक राजनीति का केंद्र बन गई. बूथ पर मौजूद EVM अचानक विवाद का चेहरा बन गई. किसी क्षेत्र में मशीन खराब होने की ख़बर आई नहीं कि अफवाहें हवा में तैरने लगीं. यह अफवाहें सही थीं या गलत-यह महत्वपूर्ण नहीं. महत्वपूर्ण यह था कि मतदाता इन अफवाहों को सच मानने लगा था.
राजनीति में सबसे खतरनाक स्थिति है-जब जनता को सच्चाई पर नहीं, शक पर भरोसा होने लगे.चुनाव आयोग ने पर्यवेक्षक बढ़ाए, वीवीपैट गिनती बढ़ाई, सुरक्षा कड़ी की. लेकिन विवाद इतना बड़ा हो चुका था कि ये उपाय समुद्र में मोमबत्ती जैसे महसूस हुए. विपक्ष ने कहा- “यह समस्या तकनीकी नहीं; राजनीतिक है.” सत्ता पक्ष ने कहा- “ECI की बदनामी लोकतंत्र का नुकसान है.”
और जनता ने सोचा- “अगर ये एक-दूसरे पर ही भरोसा नहीं कर रहे, तो हम किस पर करें?” यही वह बिंदु था जहां विवाद एक राष्ट्रीय लोकतांत्रिक प्रश्न बन गया.
2025 के बिहार विधानसभा चुनावों के संदर्भ में “वोट चोरी” (vote theft) का मुद्दा अभूतपूर्व रूप से उभरा. महागठबंधन और कांग्रेस का आरोप था कि बीजेपी ने “विशेष गहन पुनरीक्षण” (Special Intensive Revision – SIR) प्रक्रिया का उपयोग मतदाता सूची को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए किया. दावा यह था कि पुराने मतदाताओं को सूची में बनाए रखा गया, कुछ लोगों के नाम हटाए गए, और कुछ ऐसे वोटर बिहार में जोड़े गए जो वास्तविक रूप से दूसरे राज्यों के निवासी थे.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी ‘वोटर अधिकार यात्रा’ में इस SIR प्रक्रिया को “चुनावी साज़िश” बताते हुए कहा कि मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर “हेराफेरी” की गई है. उन्होंने मुख्य निर्वाचन आयुक्त सहित तीन वरिष्ठ अधिकारियों पर सीधे आरोप लगाए और कहा कि यह “लोकतंत्र की हत्या” जैसा कदम है.
इसी क्रम में आम आदमी पार्टी नेता सौरभ भारद्वाज ने दावा किया कि बीजेपी ने SIR के दौरान “अपने विश्वासी वोटरों” की पहचान की और यह सुनिश्चित किया कि उनके नाम मतदाता सूची से न हटें, ताकि वे बिहार में मतदान कर सकें. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि इनके लिए विशेष ट्रेनों का प्रबंध किया गया, जिनकी निगरानी भाजपा के जिलाध्यक्ष करते देखे गए और यह सवाल उठाया कि क्या ये ट्रेनें सचमुच “छठ पूजा” के लिए नहीं, बल्कि “वोट ट्रांसपोर्टेशन” के लिए थीं.
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने यह भी आरोप लगाया कि कुछ भाजपा नेताओं ने एक ही वर्ष में दो राज्यों,दिल्ली और बिहार में मतदान किया. राहुल गांधी ने कहा कि यह “चुनावी निष्पक्षता पर सीधा हमला” है.
इन सबके बीच विपक्षी दलों ने व्यापक जन-जागरूकता अभियान-‘वोटर अधिकार यात्रा’शुरू किया. इसका उद्देश्य मतदाता सूची की पारदर्शिता, चुनाव आयोग की भूमिका और मतों की सुरक्षा को एक जन आंदोलन का विषय बनाना था. राहुल गांधी ने युवाओं, विशेषकर Gen Z, को संबोधित करते हुए कहा कि यह मुद्दा “सिर्फ राजनीतिक आरोप नहीं, बल्कि लोकतंत्र के भविष्य की रक्षा” से जुड़ा है.वोट चोरी के इन आरोपों ने सोशल मीडिया को भी गर्म किया. SIR प्रक्रिया के दौरान हटाए गए 65 लाख से अधिक मतदाताओं की सूची को विपक्ष ने “लोकतांत्रिक डकैती” तक कहा. सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने इसे “लोकतांत्रिक धोखा” बताते हुए चुनाव आयोग से जवाब मांगा.
भाजपा ने इन आरोपों को “भ्रष्ट विपक्ष की हताशा” कहा. उनका तर्क था कि SIR में हटाए गए कई नाम मृतकों या दोहरे पंजीकरण वाले थे. भाजपा प्रवक्ता अजय आलोक ने कहा कि विपक्ष “चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं पर अकारण अविश्वास” पैदा कर रहा है.
इन आरोप-प्रत्यारोपों ने पूरे चुनाव को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया, जहाँ अब चर्चा विकास या रोजगार की नहीं, बल्कि चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता की होने लगी.
मतदाता सूचियों में अनियमितताओं, बूथों पर तकनीकी दिक्कतों और वायरल वीडियो ने लोगों के मन में यह आशंका पैदा की कि मतदान की शुचिता कहीं राजनीति की बलि तो नहीं चढ़ रही. कई वायरल वीडियो में बूथों के बाहर लंबी कतारें दिख रही थीं, जबकि आधिकारिक मतदान प्रतिशत असामान्य रूप से कम दर्ज किया गया. विपक्ष ने इसे “मतगणना में हेरफेर” के संकेत बताया, जबकि सत्ता पक्ष ने इसे “भ्रामक प्रचार” कहा.
बिहार के जातीय समीकरणों पर भी वोट चोरी की बहस का गहरा असर पड़ा. कई समुदायों ने खुलकर आरोप लगाए कि उनके मतों को दबाने या मोड़ने की रणनीति अपनाई गई. इससे चुनाव की दिशा ही बदल गई, विकास के मुद्दे से हटकर पूरा विमर्श लोकतांत्रिक शुचिता पर केंद्रित हो गया.
चुनाव आयोग ने इस विवाद के बाद कई जिलों में अतिरिक्त पर्यवेक्षक तैनात किए, सुरक्षा बल बढ़ाए और वीवीपैट स्लिप की गिनती बढ़ाई. लेकिन फिर भी जनता के बीच यह सवाल बना रहा—क्या यह कदम पर्याप्त हैं? क्या इससे वोट की विश्वसनीयता पर लगा धब्बा मिट सकेगा?
विशेषज्ञों का कहना है-लोकतंत्र की मजबूती सिर्फ मतदान की संख्या पर नहीं, बल्कि मतदान प्रक्रिया की निष्पक्षता और जनता के विश्वास पर टिकी होती है. यदि यह विश्वास डगमगाता है, तो चुनावी परिणाम चाहे जो हों, उनकी वैधता पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं.
भाजपा के लिए यह विवाद ऐसे समय में आया जब पार्टी बिहार में अपनी पकड़ मजबूत करने में लगी थी. दूसरी ओर विपक्ष का कहना है कि यदि चुनावी मशीनरी पर सवाल नहीं उठाए गए तो भविष्य में कोई भी चुनाव भरोसेमंद नहीं रहेगा. यही कारण है कि यह मुद्दा सिर्फ चुनावी बयानबाजी न रहकर एक “राष्ट्रीय लोकतांत्रिक प्रश्न” बन गया है.
विश्लेषकों का मानना है कि आने वाले वर्षों में भारत की चुनावी राजनीति का बड़ा हिस्सा ऐसे ही विवादों से प्रभावित होगा-EVM की विश्वसनीयता, VVPAT गिनती, मतदाता सूची की शुद्धता और बूथ प्रबंधन की पारदर्शिता अब मुख्य चुनावी विमर्श बनेंगे.
बिहार की सामाजिक विविधता और जटिल राजनीतिक संरचना को देखते हुए, यहाँ की कोई भी चुनावी घटना राष्ट्रीय राजनीति में व्यापक प्रभाव डालती है. इसलिए 2025 का यह चुनाव सिर्फ बिहार नहीं, बल्कि पूरे भारत की लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा की परीक्षा बन गया है.
इन सबके बीच सबसे अधिक प्रभावित वह आम मतदाता है, जो यह विश्वास लेकर मतदान केंद्र तक पहुँचता है कि उसका वोट लोकतंत्र का सबसे पवित्र अधिकार है. लेकिन अगर उसे लगे कि उसके वोट का सही उपयोग नहीं हुआ, या उसका वोट दबा दिया गया, या उसका नाम ही सूची से गायब कर दिया गया, तो यह लोकतांत्रिक संरचना को भीतर से खोखला कर सकता है.
भविष्य की राजनीतिक रणनीतियों में मतदाता सूची की जांच, बूथ-मॉनिटरिंग, सोशल मीडिया फ़ैक्ट-चेकिंग और पोलिंग एजेंटों की संख्या बढ़ाने पर अधिक ज़ोर दिया जाना तय है. विपक्ष नागरिक समाज के निगरानी तंत्र को मजबूत करने की मांग कर रहा है ताकि चुनाव प्रक्रिया को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाया जा सके.
यह विवाद इसलिए भी गहरा था क्योंकि अब वोट चोरी का चेहरा बदल चुका था. वह दृश्य नहीं रहा. वह बूथ पर दिखाई नहीं देता. वह किसी बैलेट बॉक्स की चोरी नहीं बनता. अब वह डेटा में छिपा होता है. वह एक्सेल शीट की पंक्तियों में दिखाई देता है. वह डिजिटल प्रविष्टियों में आता-जाता है. इस अदृश्यता ने उसे और खतरनाक बना दिया. क्योंकि अदृश्य चीज़ें डर पैदा करती हैं, और जब लोकतंत्र डरने लगे, तो राजनीति अपने चेहरे बदलने लगती है.



























