जीवन में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके काम बिना किसी विशेष संघर्ष के अनायास ही बन जाते हैं, जिनके बारे में अक्सर कहा जाता है कि उनका भाग्य बहुत प्रबल है. ज्योतिष शास्त्र में ऐसे सौभाग्य और बिना परिश्रम के मिलने वाली सफलता का सीधा संबंध किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली के नवम भाव से होता है, जिसे 'भाग्य भाव' कहा जाता है. ज्योतिषियों का मानना है कि यह नवम भाव ही वह मुख्य केंद्र है जो निर्धारित करता है कि किसी जातक को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता के लिए कितना प्रयास करना पड़ेगा और कब उसे किस्मत का सीधा साथ मिलेगा.
यह नवम भाव केवल अकेला काम नहीं करता, बल्कि इसकी मजबूती और शुभता कुंडली के अन्य सहयोगी भावों—विशेष रूप से लग्न (पहला भाव) और पंचम भाव (त्रिकोण भाव)—से देखी जाती है. जब नवम भाव और उसका स्वामी ग्रह (भाग्येश) बलिष्ठ और शुभ स्थिति में होते हैं, तो वे एक ऐसी ऊर्जा का निर्माण करते हैं जो जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं को 'भाग्य के बल' से पोषित करती है.
ज्योतिष शास्त्र के नियम स्पष्ट बताते हैं कि कुंडली में जिस भी भाव के स्वामी का संबंध मूल रूप से इस बलिष्ठ नवम भाव के स्वामी से बनता है, तो जातक को उस भाव से संबंधित फलों की प्राप्ति में कोई विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती. ऐसे जातकों को उस भाव संबंधी शुभ फल की प्राप्ति अपने भाग्य के बल से हो जाती है. यही कारण है कि कुछ लोग बड़ी सफलता आसानी से हासिल कर लेते हैं, और इसके पीछे उनकी कुंडली का नवम भाव और उसका स्वामी ग्रह शुभ परिणाम दे रहा होता है.
उदाहरण के लिए, यदि किसी जातक की कुंडली मेष लग्न की है, तो नवम भाव का स्वामी देवगुरु बृहस्पति बनते हैं, जो भाग्य के अधिपति कहलाते हैं. यदि इस जातक को भूमि या मकान बनवाना या खरीदना हो, तो इसमें चतुर्थ भाव (जो मकान और सुख का भाव है) के स्वामी का संबंध, और भूमि-मकान के कारक मंगल का संबंध, नवमेश (भाग्येश) गुरु से हो जाता है. ऐसी स्थिति में, जातक को अपनी ओर से विशेष प्रयास किए बिना ही पिता, दादा या किसी संस्था आदि के माध्यम से अपने भाग्य के बल से अच्छे मकान सुख की प्राप्ति हो जाती है. यहां चतुर्थ भाव/भावेश का भाग्य (नवम भाव/भावेश) से संबंध बन जाता है, जिससे मकान आदि का सुख भाग्य के सहारे मिलता है.
इसी तरह, ज्योतिषीय विश्लेषण बताता है कि सप्तम भाव (जीवनसाथी और विवाह का भाव) का संबंध यदि नवम भाव के स्वामी से केंद्र या त्रिकोण में होता है, तो जातक को अत्यंत भाग्यशाली जीवनसाथी की प्राप्ति होती है. ऐसे जातक या जातिका की शादी के बाद कई तरह से उन्नति और सौभाग्य की वृद्धि होती है. वहीं, दशम भाव (कर्म और व्यवसाय का भाव) के स्वामी का संबंध नवम भाव से होने पर जातक को कम मेहनत से ही बढ़िया नौकरी या व्यापार करने के रास्ते मिल जाते हैं और वह अपने कार्य क्षेत्र में खूब तरक्की करता है.
ज्योतिषीय सिद्धांत यह भी बताते हैं कि नवम भाव/भाग्येश से जिस भी भाव के स्वामी का शुभ संबंध बन जाता है, उस भाव से संबंधित फलों की प्राप्ति बहुत आसानी से और शुभ स्थिति में होती है. यदि किसी भाव का स्वामी ग्रह कमजोर या पीड़ित होने के कारण अपने भाव के फल देने में सक्षम न भी हो, तब भी नवमेश (भाग्येश) से शुभ स्थिति में संबंध होने पर भाग्य के बल से उस भाव संबंधी फल की प्राप्ति जरूर होती है.
हालांकि, इस नियम का एक महत्वपूर्ण अपवाद भी है. ज्योतिष में छठा भाव (शत्रु, रोग और ऋण) और आठवां भाव (बाधाएं, कष्ट और आकस्मिकता) अशुभ भावेश माने जाते हैं. यदि इन अशुभ भावेशों का संबंध भाग्येश या नवम भाव से हो जाता है, तब भाग्य जातक को अशुभ फल देता है. इसका मतलब है कि जातक के भाग्य में अशुभ फलों की प्राप्ति होना भी लिखा होता है, क्योंकि छठा और आठवां भाव प्रबल अशुभ फल देने वाले हैं, और भाग्येश से इनका संबंध होने से ये अशुभ फल जातक के भाग्य में शामिल हो जाते हैं.
संक्षेप में कहें तो, नवम भाव और उसके स्वामी की बलिष्ठता जीवन के हर उस क्षेत्र में आसानी और सौभाग्य सुनिश्चित करती है जिसका संबंध उससे बन जाता है. यदि यह संबंध शुभ भावों से है, तो शुभ फल मिलेंगे, और यदि यह संबंध छठा या आठवां भाव से है, तो जातक को अपने भाग्य के कारण जीवन में संघर्ष और बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है. इस तरह, नवम भाव ही वह कुंजी है जो बताती है कि व्यक्ति को जीवन में कब और कितना भाग्य का साथ मिलेगा.

































