भारत में राष्ट्रवाद कोई मुद्दा नहीं संघ को राष्ट्रवादी कहना समझ की कमी: सरसंघचालक मोहन भागवत

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नागपुर. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने शनिवार को एक पुस्तक मेले के दौरान अपने संबोधन में राष्ट्रवाद (Nationalism) की अवधारणा और संघ की पहचान को लेकर एक विवादित और गहरा बयान दिया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अन्य देशों की तुलना में भारत में राष्ट्रवाद कोई मुद्दा नहीं है, और जो लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को केवल एक 'राष्ट्रवादी संगठन' कहकर सीमित करते हैं, वह उनकी भ्रमित समझ का परिणाम है। भागवत के इस बयान ने देश की राजनीतिक और वैचारिक गलियारों में एक नई बहस छेड़ दी है, क्योंकि अक्सर संघ को भारतीय राजनीति में हिंदू राष्ट्रवाद का सबसे प्रमुख चेहरा माना जाता है।

नागपुर में एक पुस्तक महोत्सव को संबोधित करते हुए, श्री भागवत ने कहा, "लोग हमें 'राष्ट्रवादी'  कहते हैं। हमारा किसी के साथ कोई विवाद नहीं है; हम विवादों से दूर रहते हैं। यह हमारे स्वभाव का हिस्सा नहीं है।" उनका यह बयान उन तमाम आलोचनाओं और परिभाषाओं को खारिज करता हुआ प्रतीत होता है जो संघ को कट्टर राष्ट्रवादी या केवल एक राजनीतिक विचारधारा तक सीमित रखने की कोशिश करती हैं।

भागवत ने भारत की मूल प्रकृति और संस्कृति पर जोर देते हुए राष्ट्रवाद के पश्चिमी मॉडल से इसकी तुलना की। उन्होंने कहा, "हमारा स्वभाव और हमारी संस्कृति साथ मिलकर आगे बढ़ना है। कई विदेशी राष्ट्रों के साथ ऐसा मामला नहीं है।" उन्होंने यह कहकर भारत के राष्ट्रवाद को एक समावेशी और सांस्कृतिक पहचान से जोड़ा, जो पश्चिम के विवादास्पद या आक्रामक राष्ट्रवाद की अवधारणा से अलग है। उनका इशारा इस ओर था कि भारत में राष्ट्रवाद कोई संघर्ष या राजनीतिक हथियार नहीं है, बल्कि यह यहाँ की मूल चेतना में समाया हुआ एक सहज भाव है।

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सरसंघचालक का यह बयान ऐसे समय में आया है जब देश में राष्ट्रवाद, नागरिकता और समावेशिता जैसे विषयों पर तीखी राजनीतिक बहसें चल रही हैं। संघ, जो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) का वैचारिक संरक्षक है, के प्रमुख के रूप में भागवत के शब्द हमेशा देश की वैचारिक दिशा को इंगित करते हैं। उनके अनुसार, भारत की पहचान ही उसकी सांस्कृतिक एकता में है, जहाँ विभिन्न समुदायों और विचारों के लोग सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर सदियों से एक साथ रह रहे हैं। इसलिए, भारत को राष्ट्रवाद को सिद्ध करने या लड़ने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह पहले से ही यहाँ की मिट्टी में रच-बस चुका है।

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भागवत के बयान का निहितार्थ यह है कि संघ का कार्य केवल राजनीतिक राष्ट्रवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक और सामाजिक उत्थान का एक व्यापक अभियान है। जब लोग संघ को केवल 'राष्ट्रवादी' कहते हैं, तो वे इसके विशाल सामाजिक कार्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, और आपदा राहत जैसे क्षेत्रों में किए जा रहे कार्यों को नजरअंदाज कर देते हैं। उनका मानना है कि संघ का अंतिम लक्ष्य समग्र समाज को संगठित करना है, न कि किसी संकीर्ण विचारधारा के तहत केवल राष्ट्रीय भावना को भड़काना।

इस बयान के बाद देश के राजनीतिक विश्लेषकों और विपक्ष की ओर से तीखी प्रतिक्रियाएं आने की संभावना है। एक तरफ जहां संघ समर्थक इसे भारतीय राष्ट्रवाद की गहरी समझ और संघ की उदार छवि को दर्शाने वाला बयान मानेंगे, वहीं दूसरी ओर विपक्षी दल इस पर सवाल उठा सकते हैं कि संघ, जो हमेशा से एक राष्ट्र, एक संस्कृति के विचार पर जोर देता रहा है, वह अचानक यह कैसे कह सकता है कि राष्ट्रवाद भारत में कोई मुद्दा नहीं है। आलोचक यह तर्क दे सकते हैं कि संघ का यह प्रयास अपनी कठोर राष्ट्रवादी छवि को नरम करने और अधिक समावेशी दिखने का एक प्रयास हो सकता है, खासकर तब जब देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर है।

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भागवत ने अपने संबोधन में यह भी स्पष्ट किया कि संघ विवादों से दूर रहता है और सहयोग और प्रगति में विश्वास रखता है। यह टिप्पणी संघ की उस नीति को दर्शाती है जिसमें वह विभिन्न सामाजिक और धार्मिक समूहों के साथ संवाद स्थापित करने और सद्भाव बनाने की बात कहता रहा है। लेकिन साथ ही, यह टिप्पणी संघ की उन गतिविधियों को लेकर भी सवाल खड़े करती है जिन्हें आलोचक अक्सर विवादास्पद मानते हैं।

कुल मिलाकर, मोहन भागवत का यह बयान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक दिशा में एक महत्वपूर्ण संकेत है। यह संघ को एक ऐसे संगठन के रूप में प्रस्तुत करता है जो राजनीतिक लेबल से परे, भारतीय संस्कृति के अंतर्निहित मूल्य यानी सहयोग और समन्वय पर आधारित एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक है। हालांकि, यह बयान आने वाले दिनों में विचारकों, राजनेताओं और मीडिया के बीच एक लंबी बहस का विषय जरूर बनेगा कि क्या भारत में राष्ट्रवाद सचमुच 'कोई मुद्दा नहीं' है, या फिर यह देश की राजनीतिक और सामाजिक वास्तविकता का एक अपरिहार्य हिस्सा बन चुका है।

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